क्लिक कर जानें क्यों निकाली जाती है भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा।
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नई दिल्ली।
क्लिक कर जानें क्यों निकाली जाती है भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा।
(भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा 4 जुलाई पर विशेष)
पूर्व भारतीय उड़ीसा राज्य का पुरी क्षेत्र जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्री जगन्नाथ जी की मुख्य लीला-भूमि है। उत्कल प्रदेश के प्रधान देवता श्री जगन्नाथ जी ही माने जाते हैं। यहाँ के वैष्णव धर्म की मान्यता है कि राधा और श्रीकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्री जगन्नाथ जी हैं। इसी प्रतीक के रूप श्री जगन्नाथ से सम्पूर्ण जगत का उद्भव हुआ है। श्री जगन्नाथ जी पूर्ण परात्पर भगवान है और श्रीकृष्ण उनकी कला का एक रूप है। ऐसी मान्यता श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्य पंच सखाओं की है।
पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरम्भ होती है। यह रथयात्रा पुरी का प्रधान पर्व भी है। इसमें भाग लेने के लिए, इसके दर्शन लाभ के लिए हज़ारों, लाखों की संख्या में बाल, वृद्ध, युवा, नारी देश के सुदूर प्रांतों से आते हैं।
यहाँ की मूर्ति, स्थापत्य कला और समुद्र का मनोरम किनारा पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है। कोणार्क का अद्भुत सूर्य मन्दिर, भगवान बुद्ध की अनुपम मूर्तियों से सजा धौल-गिरि और उदय-गिरि की गुफाएँ, जैन मुनियों की तपस्थली खंड-गिरि की गुफाएँ, लिंग-राज, साक्षी गोपाल और भगवान जगन्नाथ के मन्दिर दर्शनीय है। पुरी और चन्द्रभागा का मनोरम समुद्री किनारा, चन्दन तालाब, जनकपुर और नन्दनकानन अभ्यारण् बड़ा ही मनोरम और दर्शनीय है। शास्त्रों और पुराणों में भी रथ-यात्रा की महत्ता को स्वीकार किया गया है। स्कन्द पुराण में स्पष्ट कहा गया है कि रथ-यात्रा में जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी के नाम का कीर्तन करता हुआ गुंडीचा नगर तक जाता है वह पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है।
रथयात्रा में सबसे आगे ताल ध्वज पर श्री बलराम, उसके पीछे पद्म ध्वज रथ पर माता सुभद्रा व सुदर्शन चक्र और अन्त में गरुण ध्वज पर या नन्दीघोष नाम के रथ पर श्री जगन्नाथ जी सबसे पीछे चलते हैं। तालध्वज रथ ६५ फीट लंबा, ६५ फीट चौड़ा और ४५ फीट ऊँचा है। इसमें ७ फीट व्यास के १७ पहिये लगे हैं। बलभद्र जी का रथ तालध्वज और सुभद्रा जी का रथ को देवलन जगन्नाथ जी के रथ से कुछ छोटे हैं। सन्ध्या तक ये तीनों ही रथ मन्दिर में जा पहुँचते हैं। अगले दिन भगवान रथ से उतर कर मन्दिर में प्रवेश करते हैं और सात दिन वहीं रहते हैं। गुंडीचा मन्दिर में इन नौ दिनों में श्री जगन्नाथ जी के दर्शन को आड़प-दर्शन कहा जाता है।
जनकपुर में भगवान जगन्नाथ दसों अवतार का रूप धारण करते हैं। विभिन्न धर्मों और मतों के भक्तों को समान रूप से दर्शन देकर तृप्त करते हैं। इस समय उनका व्यवहार सामान्य मनुष्यों जैसा होता है। यह स्थान जगन्नाथ जी की मौसी का है। मौसी के घर अच्छे-अच्छे पकवान खाकर भगवान जगन्नाथ बीमार हो जाते हैं। तब यहाँ पथ्य का भोग लगाया जाता है जिससे भगवान शीघ्र ठीक हो जाते हैं। रथयात्रा के तीसरे दिन पंचमी को लक्ष्मी जी भगवान जगन्नाथ को ढूँढ़ते यहाँ आती हैं। तब द्वैतापति दरवाज़ा बंद कर देते हैं जिससे लक्ष्मी जी नाराज़ होकर रथ का पहिया तोड़ देती है और हेरा गोहिरी साही पुरी का एक मुहल्ला जहाँ लक्ष्मी जी का मन्दिर है, वहाँ लौट जाती हैं। बाद में भगवान जगन्नाथ लक्ष्मी जी को मनाने जाते हैं। उनसे क्षमा माँगकर और अनेक प्रकार के उपहार देकर उन्हें प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं।
सम्पूर्ण भारत में वर्षभर होने वाले प्रमुख पर्वों होली, दीपावली, दशहरा, रक्षा बंधन, ईद, क्रिसमस, वैशाखी की ही तरह पुरी का रथयात्रा का पर्व भी महत्त्वपूर्ण है। पुरी का प्रधान पर्व होते हुए भी यह रथयात्रा पर्व पूरे भारतवर्ष में लगभग सभी नगरों में श्रद्धा और प्रेम के साथ मनाया जाता है। जो लोग पुरी की रथयात्रा में नहीं सम्मिलित हो पाते वे अपने नगर की रथयात्रा में अवश्य शामिल होते हैं। रथयात्रा के इस महोत्सव में जो सांस्कृतिक और पौराणिक दृश्य उपस्थित होता है उसे प्राय: सभी देशवासी सौहार्द्र, भाई-चारे और एकता के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। जिस श्रद्धा और भक्ति से पुरी के मन्दिर में सभी लोग बैठकर एक साथ श्री जगन्नाथ जी का महाप्रसाद प्राप्त करते हैं उससे वसुधैव कुटुंबकम् का महत्व स्वत: परिलक्षित होता है। उत्साहपूर्वक श्री जगन्नाथ जी का रथ खींचकर लोग अपने आपको धन्य समझते हैं। श्री जगन्नाथपुरी की यह रथयात्रा सांस्कृतिक एकता तथा सहज सौहार्द्र की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखी जाती है।