कांग्रेस को प्रियंका के आने से मिली एक नई ‘ऑक्सीजन’ !
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लेख डेस्क।
कांग्रेस को प्रियंका के आने से मिली एक नई ‘ऑक्सीजन’ !
(लेखक- ओमप्रकाश मेहता)
क्या आज से सत्तर साल पहले किसी ने भी यह कल्पना की थाी देश को अंग्रेजों के शिकंजे से मुक्त कराने वाली कांग्रेस की महज इतनी कम अवधि में ऐसी दुर्गति हो जाएगी? और आज उस कांग्रेस को जिसे एक अहम् गुजराती संत महात्मा गांधी ने इतनी अहमियत दी, इसी पार्टी के तिरंगे के नीचे पहली बार आजादी का गीत गाया, उसी गुजरात का एक ऐसा आधुनिक शीर्ष नेता जिसका अवतरण ही महात्मा के अवसान के बाद हुआ, वह गांधी जी की भावना की आड़ लेकर कांग्रेस को खत्म करने की बात कर रहा है। यद्यपि इसमें कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस स्वयं ही अपनी वृद्धावस्था के दौर में काफी अस्वस्थ और मरणासन्न स्थिति में है, इसमें स्वयं कांग्रेस का दोष नहीं बल्कि उसकी अगली पीढ़ी का दोष है, जिन्होंने इसकी देख-रेख ठीक से नहीं की, पिछले तीन दशक अर्थात् इंदिरा जी के परलोकगमन के बाद से ही यह पार्टी ढलान के कगार पर है, दुःख इस बात का है कि नई पीढ़ी ने स्वयं अपनी चिंता भी अपनी मां समान पार्टी की नहीं, धीरे-धीरे प्रणव मुखर्जी, डाॅ. मनमोहन सिंह व स्वयं सोनिया गांधी ने भी अपने आपको इस पार्टी से अलग रहने की कौशिश की और इसकी बागडोर एक ऐसे कमजोर हाथों में सौंप दी, जिसे राजनीति का कच्चा खिलाड़ी माना जाता रहा, यद्यपि इस कच्चे खिलाड़ी ने अपने आपको मजबूत बताने का भरपूर प्रयास किया, किंतु कल्पना की जिये यदि सोनिया गांधी पार्टी की बागडोर अकेले राहुल को थमाने के बजाए अपनी बेटी प्रियंका को भी साथ में थमाती तो क्या आज एन चुनाव के वक्त कांग्रेस को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए इतना जूझना पड़ता? फिर प्रियंका कांग्रेस की डूबती नाव को जो बचाने का प्रयास कर रही है, वह अपने आपमें सहज ही इंदिरा जी की याद ताजा करती है। …..और सत्तारूढ़ दल की राजनीति का तो यह आलम है कि सत्ता में पांच साल रहने के बाद भी उसके कटौरे में उपलब्धि के नाम पर कुछ भी नहीं है और उसे ताजा एयर स्ट्राॅइक का सहारा अपनी पार्टी की जीत के लिए लेना पड़ रहा है। क्योंकि नोटबंदी व जीएसटी जैसे अहम् फैसले सत्तारूढ़ दल के लिए संजीवनी बनने के बजाए विषवृक्ष साबित हो रहे है, इसीलिए आजाद भारत में पहली बार किसी सत्तारूढ़ दल द्वारा सैना के शीर्ष के बल पर चुनाव जीतने का प्रयास करना पड़ रहा है, जबकि कांग्रेस के शासनकाल के दशक में करीब एक दर्जन बार सर्जीकल स्ट्राईक की गई थी, जिसका ढिंढोरा पीटना तो दूर कानों-कान खबर तक नहीं हो पाई थी। जब सत्तारूढ़ दल के पास स्वयं की कोई उपलब्धि न हो तब वह यह सब करने को मजबूर हो जाता है।
….और आज नेतृत्व की स्पद्र्धा में बहन अपने भाई से आगे दौड़ती नजर आ रही है।
किंतु आज केे राजनीतिक माहौल में यह कहना भी मजबूरी है कि आज जो देश में राजनीतिक माहौल बनाया जा रहा है, वह उन मतदाताओं के लिए काफी दुःखद है, जिन्होंने पिछले पचास साल से इस देश की राजनीति को निकट से देखा है, भारतीय राजनीति में हमेशा सैद्धांतिक आधार पर लड़ाईयां लड़ी गई, हमने वह मंजर भी देखा है जब संसद में एक-दूसरे के घोर विरोधी पं. जवाहरलाल नेहरू व राम मनोहर लोहिया संसद कक्ष से बाहर गलबहियां डाले बाहर आते थे, किंतु आज तो राजनेताओं ने प्रतिपक्षी दल के नेताओं व्यक्तिगत शत्रुता कायम कर रखी है, एक दूसरों को फूटी आंखों देखना भी पसंद नहीं करते है। व्यक्तिगत चारित्रिक आरोप-प्रत्यारोप आम बात हो गई है, इसका ताजा उदाहरण राहुल प्रियंका के खिलाफ मोदी सरकार की महिला मंत्री स्मृति ईरानी द्वारा लगाए गए नीजी अरोप है, क्या प्रियंका जब तक कांग्रेस से बाहर थी, तब तक के निर्दोष थी और आज जब वे मोदी के लिए ‘सिरदर्द’ बनने जा रही है तो वे भ्रष्टाचारी हो गई? आखिर ऐसी राजनीति कहां जाकर विश्राम लेगी। आज से पहले देश में कितने चुनाव हो चुके, क्या कभी चुनाव के पूर्व कभी ऐसा माहौल रहा, जब सत्तारूढ़ दल के वरिष्ठ मंत्रियों को चुनाव आयोग के पास जाकर एक राज्य विशेष को संवेदनशील घोषित करने की मांग करनी पड़े? किंतु आज यह सब हो रहा है, और अब यही सब देखने को मजबूर होना पड़ेगा।
खैर, हमारा आज का चर्चा का विषय तो कांग्रेस व उसकी स्थिति था। अब यद्यपि प्रियंका को कांग्रेस में सक्रिय हुए एक ही महीना हुआ है, किंतु इतनी कम अवधि में प्रियंका ने अपने आचार-व्यवहार व वाणी संयम के माध्यम से यह अहसास अवश्य करवाया है कि वह वास्तव में ‘इंदिरा’ का अवतरण है, अब वह महज डेढ़ महीनें में चुनावी वैतरिणी को कितनी सफलता से पार कराती है, यह तो भविष्य के गर्भ में है, किंतु यह अवश्य है कि कांग्रेस को उनके आने से एक नई ‘आॅक्सीजन’ अवश्य मिली है और इसके जीवनदान की संभावना भी बलवती हो गई है। जहां तक राजनीतिक स्तर का सवाल है, उसका ताो भगवान ही मालिक है।